सप्तश्रृंगी देवी का किला : महारष्ट्र राज्य में सबसे प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में सप्तशृंगी देवी का मंदिर का नाम सबसे आगे आता है। सप्तश्रृंगी देवी को महाराष्ट्र में वणी की देवी और भगवती माता के नाम से भी जाना जाता है। सप्तश्रृंगी किले पर दूरसे आने वाले यात्री नासिक होकर वणी आ सकते है ,जो नासिक से लगभग ६५ किलोमीटर की दुरी पर है।
रेलवे से आनेवाले यात्री नाशिक रोड रेलवे स्टेशन ,या मनमाड रेलवे स्टेशन उतरकर वणी आ सकते है। विमान से आनेवाले यात्री नाशिक के ओझर एयरपोर्ट से वणी आ सकते है। नासिक से सूरत हाइवे पर वाणी का किला मौजूद है ! और रास्ता नासिक से सीधा जुड़ा हुवा है ! वणी का किला नाशिक के कलवन तहसील में स्थित है ,जो भौगोलिक दृष्टी से सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला में आता है ,जो सात पर्वतो के बिच है ,इसीलिए इस किले को सप्तश्रृंगी किला नाम रखा है। किले की कुल उचाई ४५६९ फिट याने १४८० मीटर की है।
रामायण में सप्तश्रृंगी देवी के किले का निर्माण कैसे हुवा उसकी दंतकथाएं बताई गई है ,जब रावण के पुत्र इंद्रजीत ने युद्ध में आपने अस्र से रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण को बेहोश कर दिया था। तब उन्हें बचाने के लिए आयुर्वेदिक पौधे की जरूरत थी ,जो उत्तर में द्रोणगिरि पर्वत में थे ,उसे लाने के लिए प्रभु रामजी ने हनुमान जी को आदेश किया ,और आदेश का पालन करने हेतु हनुमान जी उत्तर में द्रोणगिरि पर्वत पर गए ,लेकिन सभी पौधे एक जैसे दिखने के कारन हनुमान जी पौधे का पहचान नहीं सके ,और उन्होंने पूरा द्रोणगिरि पर्वत अपने शक्ति से उठा लिया। और दक्षिण के और निकले तभी रस्ते में द्रोणगिरि पर्वत का एक छोटा हिस्सा टूट गया. वही छोटा टुकड़ा आज सप्तश्रृंगी किले के नाम से जाना जाता है।
सप्तश्रृंगी देवी मंदिर : सप्तश्रृंगी देवी का मंदिर सतपुड़ा के पर्वत श्रृंखला में मौजूद है। मदिर को सीमेंट क्रोक्रेट से बनाया गया है। जो ४८०० फिट की उचाई पर है। मंदिर के अंदर संगम रावरी फर्श है ! मंदिर में स्वयंभू ११ फिट की पत्थर के नक्षीदार मूर्ति है ,मूर्ति को नौ भुजाये है ,हर भुजा में अलग अलग हतियार है। मंदिर में मुख्य तीन द्वार है जिसमे चन्द्रद्वार ,सूर्यद्वार और शक्तिद्वार है
देवीको सोने-चांदी के गहनों से श्रृंगार किया जाता है। देवी को ११ मन वाली पैठनी साड़ी पहनाई जाती है ,और माता को शेंदुरि रंग से सजाया जाता है ,मेक सर पर सोनेका मुकुट,नाक में सोनेकी नथनी ,चांदी का कमरपट्टा ,सोनेके मलंगलसूत्र ,पैरो में चांदी की पायल ,हात में सोनेके कंगन और मुँह में पान रखा जाता है ! माता के मंदिर को रंगी बे रंगी कलर के फूलो से सजाया जाता है। कभी कभी मंदिर को सब्जी या फलो से भी सजाया जाता है।
सप्तश्रृंगी माता का इतिहास : महिषासुर नामक राक्षस जो भगवान शिव के वरदान से अनेक शक्तियों का उपयोग करके भूतल पर ,तृषि ,मुनियो पर अत्याचार कर रहा था उसे कोई मार नहीं सकता था ऐसा वरदान उसने शिवजी से प्राप्त किया था। उसकी वजह से वो धरती पर सहांर मचा रखा था !तभी सभी तृषि ,मुनि और देवता मिलकर भगवती माता के पास गए और उनसे दया की याचना की और कहा की महादेव से वरदान प्राप्त करके महिषसुर भूतल पर विनाश कर रहा है ,और उसे मारने का और धरती को इस विनाश से बचाने ताकद सिर्फ आपमें है। इसी कारन उनके अनुरोध पर भगवती माता ने महिषासुर राक्षस को मरने की प्रतिज्ञा ली ,और चंडिका का रूप धनराण करके अश्विनशुल्क पक्ष के पहले दिन से महिषासुर और भगवती माता के बीच भीषण युद्ध हुवा और लगातार नौ दिन तक युद्ध शुरू रहा और और दसवे दिन माता भगवती ने महिषासुर का वध किया और सप्तश्रृंगी किले पर आकर विराजमान हो गई ,तभी से भगवती माता को महिषासुरमदिनी भी कहा जाता है !
सप्तश्रृंगी किले पर उत्सव : सप्तश्रृंगी किले पर हर महीने के पूर्णिमा को उत्सव मनाया जाता है ,लेकिन साल में दो बार अश्विन माह में नवरात्री का उत्सव १० दिन मनाया जाता है ,और चैत्र महीने में गुप्तनवरात्रि के समय १५ दिन का उत्सव मनाया जाता है ,जिसका समारोप चैत्र पूर्णिमा के दिन होता है ,इसके आलावा कोजागिरी पूर्णिमा ,गुडीपाडवा ,और दिवाली पड़वा को भी उत्सव मनाया जाता है।
सप्तश्रृंगी किले पर कहा रुके : सप्तश्रृंगी किले पर रुकने के लिए आपको होटल और लॉगिंग मिल जाएँगी ,इसके आलावा माता भगवती ट्रस्ट की धर्मशाला पर भी आप रुख सकते है जिसका खर्चा ५०० रुपये १ दिन का आता है। भोजन के लिए किले पर काफी होटल मौजूद है ,और धर्मशाला में भी खाना मिलता है। जिसका खर्चा २० रुपये है।
मंदिर तक कैसे जाये : मंदिर तक जाने के लिए भगवती माता ट्रस्ट ने रोपवे ट्रेन बनाई है ,जिसके जरिये आप मंदिर जा सकते है,जिसके लिए १०० प्रति व्यक्ति खर्चा आता है। जिसकी बुकिंग आप वह जाकर कर सकते है।
मार्कंडेत्रुषि पर्वत :सप्तश्रृंगी मंदिर के सामने सूर्यद्वार के सामने से आपको मार्कंडेत्रुषि का पर्वत दिखाई देता है ,जो माता सप्तश्रृंगी के गुरु है ,यह पर्वत ३४०० फिट है ,और कहा जाता है की इस पर्वत पर मार्कंडेत्रुषि का मंदिर है ,जो सम्पूर्ण भारत में सिर्फ यही है ,और इसी पर्वत पर बैठकर उन्होंने दुर्गशक्ति नामक ग्रंथ लिखा था। माता के भक्त,इस पर्वत पर भी दर्शन के लिए जाते है। सोमवती अमावस्या और त्रुषिपंचमी को भक्तो की भीड़ ज्यादा होती है।
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